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Archive for the ‘कविता’ Category

सावन झाँके  दूर से,बेबस है इंसान  ।
कब तक सोखेगी धरा, धूप हुई हलकान ।।


पढ़-लिख काया  बदल ली,बदले नहीं विचार ।
कौआ  कोयल-भेष में,करता शिष्टाचार ।।


शब्द अर्थ को खो रहे,भटक रहे हैं छंद।
लिखते कुछ,होते अलग,ब्लॉगर-लेखक-वृन्द ।।


तुलसी इस संसार में ,वही बड़ा विद्वान।
खड़ी फ़सल  में आग दे,बोए  निज अभिमान ।।


लिपा-पुता चेहरा दिखे,भोला-सा इन्सान ।
जेबों में मक्कारियाँ ,कर देती हैरान ।।


सूरत धोखा दे रही,संबंधों में खोट ।
रिश्तों में चालाकियाँ ,देती गहरी चोट ।।


पाहुन सावन की तरह,भूले अपना देश ।
मेघ-डाकिया बाँटता ,नित झूठे सन्देश ।।

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वर्षा की रिमझिम बूंदों ने 
मन में नई मिठास भरी,
नए-नए पौधों से सजकर 
सारी धरती हुई हरी ||


सूरज की कठिन चुभन से
तन जब अग्नि समान हुआ,
मेघ-देव से जल-प्रसाद पा 
शीतल,शांत महान हुआ ||


झड़ी लगी जब वर्षा की 
लबालब्ब सब खेत हुए,
कृषकों के नाचे मन-मयूर 
मुदित सभी के हृदय हुए ||


वर्षा-देवी के स्वागत में
सूरज ने गरमी रोकी ,
पशु-पक्षी सारे चहक उठे
आई बहार भी फूलों की ||


हे वर्षा-देवी ! स्वागत-स्वागत 
सूखी धरती पर बार-बार,
तुम आईं ,जीवन आया 
संग में आईं खुशियाँ हज़ार ||




विशेष : रचनाकाल –१८/०६/१९९० 
स्थान: दल्ली-राजहरा (छत्तीसगढ़)

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मेरे जीवन की प्रथम-किरण,
         मेरे अंतर की कविता हो,
हृदय अंध में डूब रहा ,
        प्रज्ज्वलित करो तुम सविता हो !


मम भाग्य-विधाता  तुम्हीं  हो,
       तुम बिन जीवन है पूर्ण नहीं,
मेरे अंतर-उद्गारों को ,
      साथी ! करना तुम चूर्ण नहीं !


प्रेरणा तुम्हीं हो कविता की,
      मेरे मानस की अमर-ज्योति,
सत्यता तुम्हारे सम्मुख है,
     नहीं तनिक भी अतिशयोक्ति !


मेरे जीवन की डोर तुम्हीं,
    अपने से अलग नहीं करना,
प्यार तुम्हीं से केवल है,
      अंतर्मन में मुझको रखना !!

पहली बार प्रकाशित :२२/१०/२०१०


विशेष :पहला गीत,रचना-काल-१०/०६/१९८७
 स्थान-फतेहपुर(उ.प्र.)


रीपोस्रिपोस्ट

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बादल हमको दे दगा,चले गए उस ओर |
बिन बारिश दम सूखता,नहीं नाचते मोर || (१)


धरती झुलसे उमस से,प्यासे पंछी मौन |
दादुर दर्शन हैं कठिन,अब टर्राये कौन ? (२)


सूखा सावन आ गया,गोरी खड़ी उदास |
झूले खाली पड़े हैं,बिरवा बिना हुलास || (३)


काया पत्थर की हुई,नहीं बरसते नैन |
रूठे बादल-बालमा,सूने हैं दिन-रैन || (४)


खुल्लमखुल्ला कर दिया,मेघों ने ऐलान |
सूरज की साजिश यही,नहीं बचे इंसान || ५)


जामुन काले हो रहे,बचा न उनमें स्वाद |
आम बिना टपके गिरें,मीठापन बर्बाद || (६ )

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बरगद बूढ़ा हो गया,सूख गया है आम |
नीम नहीं दे पा रही,राही को आराम ||(१)


कोयल कर्कश कूकती,कौए गाते राग |
सूना-सूना सा लगे,बाबा का यह बाग ||(२)


अम्मा डेहरी बैठकर ,लेतीं प्रभु का नाम |
घर के अंदर बन रहे,व्यंजन खूब ललाम ||(३)


आँगन में दिखते नहीं, गौरैया के पाँव |
गोरी रोज़ मना रही लौटें पाहुन गाँव ||(४)


मनरेगा के नाम पर,मुखिया के घर भोग |
ककड़ी,खीरा छोड़कर,चिप्स चबाते लोग  ||(५)


रामरती दुबली हुई,किसन हुआ हलकान |
बेटा अफ़सर बन गया,रखे शहर का ध्यान ||(६)

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तुम्हारे जाते ही खुश हुआ था मैं
अब न कोई रोकेगा,न टोकेगा,
सब कुछ हमारे हाथ में होगा
हमारे काम पर भी
नज़र कोई नहीं रखेगा |
तुम्हारे बिना कुछ दिन
बड़ा अच्छा लगा था,
अकेले होने के ख़याल से
मन मचलने लगा था |
तुम्हारे जाने के इतने दिनों बाद

गुरूद्वारे में अर्चना करते हुए !

तुम्हारी कमी महसूसती है,
एक उकताहट सी आ गई है अब
ज़िन्दगी भी हम पे हँसती है |
जब भी उँगलियाँ चलाता हूँ
कम्प्यूटर के की-बोर्ड पर,
अचानक रुक जाता हूँ
पीछे से कोई आवाज़ न पाकर |
तुम्हारे रहते लिखता था
कहीं ज़्यादा बेफिक्र होकर ,
पर अब लगता है जैसे
कविता और ज़िन्दगी
दोनों गईं हों रूठकर |
तुम्हारी झिड़की औ नसीहत
जबसे नदारद सी हुई है,
हमारी जिंदगी बेरंग औ
बहुत घबराई हुई है |
इस की-बोर्ड, अंतरजाल से
वितृष्णा हो गई है,
बाहरी दुनिया को पाकर
अपनी कहानी खो गई है |
तुम्हें जाना है ज़्यादा
यूँ चले जाने के बाद,
घर मकाँ सा हो गया
दीवार-ओ-दर करते हैं याद |
बहुत दिन अब हो गए
तुम बिन व बच्चों के बिना,
आतप सहा,भूखा रहा,
सुबह उठके दिन गिना |
तुम्हारी हर नसीहत
अब हमें स्वीकार है,
बस हो गया  इतना विरह
बुलाता तुम्हें श्रृंगार है ||

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निखंड घाम में काम करता आदमी,
पसीने को भी तरसता है ,
बंद कमरों में बैठे भद्र जन
बाहर का तापमान नाप रहे हैं ||

निखंड घाम में बाहर जाता आदमी
होठों से प्यास को दबाता है,
मॉल में घूमते बड़े लोग
ठंडी बियर डकार रहे हैं ||

निखंड घाम में सफ़र करता आदमी
गमछे से मुँह ढाँपता है,
बी एम डब्ल्यू में बैठे लोग
पॉप संगीत पर ठहाके मार रहे हैं ||

निखंड घाम में घर लौटता आदमी
एक नींबू के लिए मोलभाव करता  है,
कोठियों में आते संभ्रांत जन
अंगूर की पेटियाँ ला रहे हैं ||

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ईमानदारी
अब कीमत चुकाती है ,
बीच सड़क पर
क़त्ल होती है वह
व्यवस्था आँख मूँद कर चली जाती है !

ईमानदारी
अब सबको डराती है,
दिन के उजाले में भी
स्याह*अँधेरा लाती
सूरज की रोशनी  शर्माकर चली जाती है !

ईमानदारी
अब कहर ढाती है,
भरे-पूरे परिवार को
जड़ से तबाह कर
सांत्वना दिलाकर चली जाती है !

ईमानदारी
सपने नहीं दिखाती है ,
किताबों में रहकर
पन्ने-पन्ने नुचकर
नारों (नालों) में बहकर चली जाती है !

….इतना होते हुए भी वह
ईमानदारी को बचाये हुए है,
भौतिकता को छोड़कर
केवल अपनी आत्मा के साथ
गठबंधन निभाए हुए है !!

विशेष: बंगलौर में शहीद हुए ईमानदार अधिकारी महंतेश को समर्पित !

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घरवाली हमते समझदार,
पढ़ि-लिखि के भकुआ बने यार !
वी घर का काम लेहेन  मूँड़े
हम बाहर घूमि-घामि आई,
मोबाइल अउ कम्पूटर ते 
जइसे हमारि भै होय सगाई !
लड़ते-झगड़ते हो गए बाइस बरस 
जब द्याखो बात सुनावैं चार 
पढ़ि-लिखि के भकुआ बने यार !

कपड़ा-लत्ता ,बरतन-चउका 
खाना-पीना ,उनके जिम्मे,
ना कहीं घूमना,बाहर खाना
पूजा, बरत निभावैं रस्में !
हमही लरिकन के गुनहगार,
पढ़ि-लिखि के भकुआ बने यार !
अब पूरे बाइस बरस बीते 
वी झेलि रहीं हमरी संगति,
‘सत्ती होइ गईंन तुम्हैं साथै’
हमरी घरवाली रोजु कहति !
हमहीं यहि घर के बंटाधार ,

पढ़ि-लिखि के भकुआ बने यार !

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डायरी के पुराने सफों में 
हर सफे के हर्फ़ में , 
दिखती हो तुम, 
खो जाती हो तुम !
ढूंढता हूँ तुम्हें 
हर वक़्त,हर शय में 
पास होकर भी 
दूर हो जाती हो तुम !
इतनी शिद्दत से कभी
कुछ नहीं किया,
तलाश में अब हूँ मगर
कहाँ आती हो तुम ?
डायरी नहीं बनाता  
अब सफों से दूर हूँ,
हर्फ़  भी पहचानते नहीं 
प्रेम  नहीं पढ़ाती हो तुम !
हो सकता है कभी 
प्रेम मिल जाय  कहीं,
पर प्यार में सोंधापन ,सहजता 
कहाँ से लाती हो तुम ?

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